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निबंध

घने नीम तरु तले

विद्यानिवास मिश्र


वौशाख के म‍हीने में चर जगत में ही नहीं अचर जगत में भी केवल कुछ ही लोग आनंदोत्‍सव मना पाते हैं, क्‍योंकि धुप तेज होते-होते महुआ अपना समस्‍त रस टपका के पात-पात रह जाता है, कोयल की कूक के मंद पड़ते ही आप अपनी मंजरी डालता है और बसंत के स्‍वागत में उमगने वाले फूल अपना रस मधुछत्‍तों में समर्पित कर मुरझा जाते हैं, पर चि‍लचिलाती धूप और हहकारती लू में नीम झाने फूलों में झूम उठता है। वैसे मैं नीम से युगों-युगों से परिचित हूँ, जब बचपन में बाबा के जगाने पर जगता तो सबसे पहला दर्शन होता तो इस नीम का और पहला रसास्‍वाद विवश होकर जो करना पडा़ता तो इसी नीम की टहनी का। पर मेरा इससे समझौता नहीं हो पाया, आयुर्वेद की सारी शिक्षाएँ और प्राकृति का चिकित्‍सा के समस्‍त व्याख्यान असफल रहे हैं। बबूल की दातून मुझे भली लगती है, पर नीम की तिताई अभी तक सहन नहीं हो सकी, शायद मेरे जले स्‍वभाव का दोष हो।

वैसे आजीवन मेरा प्राप्‍य है नीम की गिलोय, जिसे मुए संस्‍कृत वाले अमृता कहते हैं, पर मैं इस प्राप्‍य के साथ अपना मन न मिला सका। न जाने कितनी बार आँखें करुआ आई हैं, जीभ लोढ़ा हो गई है, कान झनझना उठे हैं और मन तिता गया है, पर तब भी इस नीम से भी अधिक तीती दुनिया से मैं तीता न हो सका, यह जले स्‍वभाव का दोष नहीं तो क्‍या है, नीम तो सुनता हूँ लगता भर तीता है, पर अपने परिणाम में मधुर होता है, पर इसके प्रतिरूप मानव जगत का सप्‍ततिक्‍त तो आदि से अंत तक एकरस है। वैसे दुख की स्‍मृति कभी-कभी बहुत प्‍यारी होती है, पर तिक्‍त अनुभवों की स्‍मृति तो पहले से चौगुनी असह होती है और इसीलिए वह तभी उभरती भी है जब कोई वैसा ही अनुभव सामने आता है। दूसरे दर्द भरे अनुभवों में आदमी अपने को तो कम-से-कम पा जाता है, पर कड़वे अनुभवों की एकमात्र उपलिब्‍ध है खोना, सब कुछ अच्‍छी चीज खो देना, यहाँ तक कि जो अच्‍छी चीज विलग न हो, उसे भी अलग कर देना यह कड़वापन का अंतिम परिणाम है।

पर यह मेरी अपनी बात है, नीम की पत्‍ती को भाँग की जगह इस्‍तेमाल करने वाले लोग भी धरतीतल पर विराजमान होंगे, और हैं; नीम के तेल से सिरदर्द दूर कराने वाले धैर्यशाली मु्झे दिखे हैं और नीम को ही 'असन वसन डासन' मान कर चलने वाले प्राकृतिक चिकित्‍सा के आचार्य भी ढूँढ़ने पर मिल सकते हैं, और ऐसे लोगों से विषैले नाग भी पनाह माँगते हैं। मैं भी उनकी वंदना करता हूँ और साथ ही उनसे रश्‍क भी। एक बार मुझे याद है कि इमली की छाँह में कुछ सहपाठियों के साथ गप्‍प हँक रही थी, इतने में एक तोंदवाले अध्‍यापक ने आकर प्रवचन शुरू किया था - 'सुनो तुम लोग जो इस विषैली इमली के नीचे छँहा रहे हो, यह ठीक नहीं, एक आदमी ने विलायत में यह प्रयोग किया, लगातार छह महीने पहले वे इमली के पेड़ के नीचे विश्राम करते, इमली खाते, इमली का पना पीते और इमली की लकड़ी से रसोई पकाते यात्रा करते रहे और उन्‍हें भयंकर राजयक्ष्‍मा हो गई, तब उन्‍होंने छह महीने नीम के साथ यही प्रयोग किया और वे नीरोग हो गए। सो इस कहानी से यह शिक्षा ग्रहण करो कि इमली कितनी हानिकारक होती है।' उस दिन तो हम लोग सहमकर यहाँ से खिसक गए थे परंतु बाद को जीवन में इसी इमली से मुझे अधिक लगाव हुआ। विशेष करके तानसेन की इमली ने मुझे और ललचाया। मेरे जनपदी गीत की एक कड़ी है 'बलमु रसिया आवैं धीरे-धीरे इमिलि पतिया डोलै धीरे-धीरे' और इस कड़ी पर मैं कुरबान रहा हूँ। मेरे बाबा कहा करते, प्रात: इमली का दर्शन बड़ा अशुभ होता है और जिस घर के आगे इमली का पेड़ लग जाए, वह निर्वंश हो जाता है। शुभ-अशुभ वंश-निर्वंश तो मैं नहीं जानता, इतना जातना हूँ कि इमली का अमलोन पत्तियों की स्‍मृति अब भी मुँह में पाली भर देती है और अधपकी बलुही इमली की फली मिल जाए तो मै अब भी गुलाब-जामुन को तलाक दे सकता हूँ, उसके हरिताभ किसलयों में पहले प्‍यार की अतृप्ति मिलती है। और उसकी अधपकी-अधखट्टी फरुही में (फली) मानवी स्‍नेह का सच्‍चा सत्‍कार।

अब सोचिए, नीम में क्‍या मिलता है, गंध असह्य, स्‍वाद असह्य, यहाँ तक कुसुमित नीम का रूप भी असह्य, चारों ओर सफेद बुंदियाँ छिटकी हुई, पत्तियाँ इतनी दूर-दूर कटी-क‍टी की पेड़़ की जड़ विचारी ओट के लिए तरसती रहती है। इसलिए आम में फल न आए, महुए में कूँचे न लगें, गुलाब में काली न आए और मधुमास सुना चला जाए, पर नीम बराबर फूलेगा, मनों फूलेगा, बराबर फरेगा और इतना फरेगा कि अकुला देगा, इतना बेशर्म की कट जाने पर भी इसकी लकड़ी में घुन न फटकेगा, यदि कहीं नीम की शहतीर लग गई हो तो वर्षा होते ही जो आकुल दुर्गंधि व्‍यापती है तो प्रान औंतियापात हो उठते हैं। पर हाय रे नियति का विधान कि घर-घर बिना जतन-सेवा के नीम धरती की छाती का स्‍नेह छीनकर खड़ा मिलेगा।

मुझे इतनी विरक्ति इससे आज क्‍यों है, बताऊँ, इसलिए नहीं कि मैं मधुराई में डूबा रहना चाहता हूँ, बल्कि ठीक उल्‍टे खिरनी सरीखे मधुर ही मधुर फलों से मुझे और भी अरुचि होती है, इसलिए भी नहीं कि मैं शरीर से स्‍वास्‍थ्य को महत्‍व नहीं देता, हाँ शरीर को मैं साध्‍य न मानने के लिए विवश हूँ क्‍योंकि शरीर भी भोग के लिए है; इसलिए भी नहीं कि मुझे लुनाई की लालसा है क्‍योंकि उस क्षेत्र में मैं जानता हूँ कि कुछ कमी खप भी सकती है, पर तनिक भी अधिकता हो जाए तो सब कुछ जहर हो जाता है, इसलिए भी नहीं कि पान और आँवले के कसैलेपन से मुझे एकांत प्रीति है, सामान्‍य प्रीति तो मुझे पान से जरूर है, पर केवल अन्‍य रसों की आसक्ति मिटाने के लिए, और अंत में इसलिए भी नहीं, कि मैं कच्‍ची अमिया और बलुही इमली में ही रस की तृप्ति पाने की बात कभी-कभी किया करता हूँ, बल्कि इसलिए कि अन्‍य रसों का आस्‍वादन करके भी मैं अपने को अविलग समय-समय पर रख सकता हूँ, पर नीम के तितकड़ु स्‍वाद को चख कर उससे अविलग बने रहने की कल्‍पना भी दुस्‍सह होती है। मेरा तो विश्‍वास है कि संसार स्‍वयं एक विशाल नीम का पेड़ है, अंतर इतना ही है कि उसमें एक-दो ऐसे फल लगने की आशा रहती है जहाँ आदमी रग-रग में भीनी तिक्‍तता से त्राण पा सकता है पर नीम में वह भी नहीं।

अब जरा सपाट ढंग से बात करूँ। मैं बहुत ही एकाकी व्‍यक्ति हूँ। मैं जितना ही जनसमुदाय के साथ मिलता-जुलता हूँ, उतना ही और अपने को विजन एकांत में पाता रहता हूँ। कारण यह है कि जीवन के सभी रसों में रमने की चाह है, पर कहीं भी विलमने की धीरता नहीं है और साथ ही किसी से बिछुड़ने की निठुरता भी नहीं है। चाहता हूँ, किसी से प्रीति न करूँ पर प्रीति हो जाती है तो उसे छोड़ने की बात भी सोच नहीं पाता। 'उड़ी न सकत उड़िबे अकुलाते' वाली स्थिति सदा बनी रहती हे। एक चिरंतन आकुलता ही मेरे जीवन का पर्याय बन गई है। इसलिए जब-जब कोई तीखी बात कहीं हो जाती है। तो मन में सहज ही विरसता फैलने लगती है पर ज्‍योंही उसमें कुछ तितास आने लगती है, त्‍योंही सोचता हूँ कि दु:खों को हँसकर झेलनेवाले मेरे किसी पूर्व साथी ने यह सिद्धांत स्‍थापित किया था - 'थोड़ा कमाए, उससे वह थोड़ा ही कम खर्च करे, थोड़े से मित्र रखे पर बिना किसी प्रतिदान की शर्त बदे, थोड़े से लोगों में रमे-घूमे और थोड़े समय भी जिसके साथ रहे, उनमें और मौज भर देने की क्षमता रखे उन थोड़े से लोगों को भी तजने की क्षमता हो, पर बिना मन में तितास लिए हुए; क्‍या इससे अधिक भी चाहने की मानव जीवन में आवश्‍यकता है?' वह व्‍यक्ति मेरा जीवन-गुरु नहीं, मेरे पथ का पूर्वयात्री राबर्ट लई स्‍टीवेंसन है,‍ जिसने मुझे अक्षर डगर दिखाई है। और तब सोचता हूँ कि मुझे रोग में घुलना बदा ही हो, पर नीम का काढ़ा मुझे नसीब न हो। नीम से मेरा मतलब उसके समस्‍त भाई-बंधुओं से है। मैं जैसा कि ऊपर कह चुका हूँ कि मधुराई की सरसी में 'बेगि ही बूड़ि गईं पँखियाँ अँखियाँ मधु की मखियाँ भईं मेरी वाली' 'बूड़े तिरे की स्थिति में कभी नहीं पहुँचा हूँ, साथ ही प्रतिभा के अधकचरे प्रयोगों का अमरस भी मुझमें खटास नहीं भर सका है। हाँ कषाय के प्रति अनुराग औरों की अपेक्षा अधिक रहा है क्‍योंकि जानता हूँ किसी फ्रेंच उक्ति के अनुसार जीवन की जो दो धाराएँ हैं उनमें मेल कराने वाला यह कषाय भाव ही है, जो भारती का चरम रस है, वे धाराएँ हैं -

जीवन लघु है, लघु प्रेम है, लघु स्‍वप्‍न है और अंत में है दिन सलामत और जीवन व्‍यर्थ है, लघु आशा है, लघु घृणा है और अंत में है रात सलामत। कषायरस दिन और रात दोनों की सलामत मनाता है और सहित्‍य भी। साहित्‍य जीवन की व्‍यर्थता और बेईमानी से व्‍यथित नहीं होना जानता, इसीलिए उसे यह ज्ञान हो पाने पर भी कि जीवन वह छलना है जो अपने प्रियतम को एक दिन तज ही देती है, इतना आश्र्वासन रहता है कि उस जीवन-छलना को गाली देने का अधिकार तो बच रहा है और यही बहुत है। सो आज के कड़ुवेपन के साथ मेरा जो घोर अंतर्विरोध है, उसकी उपशांति भी मुझे इस काषाय में मिलती है। इस काषाय की यही विशेषता है कि वह तिक्‍तता का परिशोध तो करती ही है, साथ ही वह ऐसी स्‍वादभूमि तैयार करती है‍ कि उसके बाद अस्‍वादु चीज भी ली जाए तो वह मधुर प्रतीत हो। आँवले की यह मधुकारिता साहित्य की भी विशेषता है। और इस आँवले के छोटे से पेड़ के नीचे मुझे नीम की गंध चाहे सताए, पर इसकी तिताई नहीं सताती।

यहाँ बैठे-बैठे मुझे लगता है कि प्रसाद ने जो यह कहीं गाया है कि 'घने प्रेम तरु तले' सो भ्रममात्र है, मुझे तो अधिकतर लोग इस 'घने नीम तरु तले' बैठे अपनी करुआइयों की करेला-बेल चढ़ाते दिखते हैं, कुछ लोग निबौरी से झोली भरते दिखते है और कुछ लोग नीम की फूलभरी डौंगी से वैशाख की महिमाशालिनी देवी की वंदना करते दिखते हैं, पर समस्‍त जगत मुझे आज 'घने नीम तरु तले' की नसावनी छाया में मंत्रमोहित ही मिलता है। जो इससे मुक्ति पाने के लिए कुछ दौड़-धूप करता है, उसे नीम-पत्तियों की धुँकनी बरबस दी जाती है और वह फिर बेहोश-सा होकर उसी घेरे में गिर पड़ता है। मैं घेरे से बाहर होकर भी इससे घबराता हूँ, क्‍योंकि जाने कब वह घेरा मुझे भी न घेर ले, कारण राजनीति को पूर्णतया ग्रस करके यह साहित्‍य के चारों ओर भी पड़ चुका है, एक-दो साहित्‍यकार छटपटा रहे हैं पर बहुतेरे समर्पण करते चले जा रहे हैं। समर्पण न करने का अर्थ आज विनाश या लोप है। पर उन्‍मादी जीवन में छितवन की गंध इतनी छाई हुई है कि लोप हो जाए चिंता नहीं, परंतु नीम के नीचे न जाने का दुर्निवार संकल्‍प है। इतना जानता हूँ कि इस संकल्‍प के साथ मेरे जीवन का नदी और धारा का संबंध है। जब तक नदी है, तब तक धारा उसकी यही रहेगी और वेग में, हो सकती है, कमोबेशी होती रहे, पर धारा का अस्तित्‍व जिस दिन नहीं रहेगा, उस दिन नदी महासागर में विलीन हो जाएगी। इसलिए मृत्‍यु के स्‍पर्श से डरने वाले नीम की पत्‍ती चबाते हैं, चबाते रहेगे, इस नश्‍वर शरीर से मोह करने वाले नीम के नीचे छँहाते हैं, छँहाते रहेंगे और शीतल के उपासक नीम की डाली चढ़ाते है, चढ़ाते रहेंगे, पर मैंने कसम खाई है जिंदगी की, और जिंदगी में नीम को घुसने न देना मेरी एकमेव कामना है।

- वैशाख 2010, रीवा


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